कपास की उन्नत उत्पादन तकनीक

  • कपास रेशे वाली फसल हैं यह कपडे़ तैयार करने का नैसर्गिक रेशा हैं।
  • मध्यप्रदेश में कपास सिंचित एवं असिंचित दोनों प्रकार के क्षेत्रों में लगाया जाताहैं।
  • प्रदेश में कपास फसल का क्षेत्र 7.06 लाख हेक्टेयर था तथा उपज 426.2 किग्रा लिंट/हे.
  • बीटी कपास में रस चूसक कीटों के नियंत्रण के लिये 2-3छिडकाव कर नापर्याप्त होता हैं जबकि पहले में देश की कुल कीटनाशक खपत का लगभग आधाभाग लग जाता था।
  • बी.टी.कपास से अधिकतम उपज दिसम्बर मध्य तक लेली जाती हैं जिससे रबी मौसम गेहूँ का उत्पादन भी लिया जा सकता हैं।




जातियाँ :

आजकल अधिकतर किसान बीटी. कपास लगा रहे हैं जी.ई.सी. द्वारा लगभग 250 बी.टी. जातियाँ अनुमोदित हैं। हमारे प्रदेश में प्रायः सभी जातियाँ लगायी जा रही हैं। बीटी कपास में बीजी-1 एवं बीजी-2 दो प्रकार की जातियाँ आती हैं। बीजी-1 जातियों में तीन प्रकार के डेन्डू छेदक इल्लियोंए चितकबरी इल्ली, गुलाबी डेन्डू छेदक एवं अमेरिकन डेन्डू छेदक के लिए प्रतिरोधकता पायी जाती है जबकि बीजी-2 जातियाँ इनके अतिरिक्त तम्बाकू की इल्ली की भी रोक करती हैं म.प्र.में प्रायः तम्बाकू की इल्ली कपास पर नहीं देखी गई अतः बीजी.-1जातियाँ ही लगाना पर्याप्त हैं।

 

संकर किस्म

उपयुक्त क्षेत्र जिले

विशेश

डी.सी.एच. 32 (1983)

धार, झाबुआ, बड़वानी खरगौन

महीन रेशेकी किस्म,

एच-8 (2008)

खण्डवा, खरगौन व अन्य क्षेत्र

जल्दी पकने वाली किस्म 130-135दिन 25-30क्विं/हे

जी कॉट हाई.10 (1996)

खण्डवा, खरगौनव अन्यक्षेत्र

अधिकउत्पादन 30-35 क्विं/हे

बन्नी बी टी (2001)

खण्डवा खरगौन व अन्य क्षेत्र

महीन रेशा, अच्छी गुणवत्ता 30-35 क्विं/हे

डब्लू एच एच 09बीटी (1996)

खण्डवा, खरगौनव अन्यक्षेत्र

महीन रेशा, अच्छी गुणवत्ता 30-35क्विं/हे

आरसीएच 2बीटी (2000)

-

अधिक उत्पादन, सिंचिंत क्षेत्रों के लिए उपयुक्त

जे के एच-1 (1982)

-

अधिक उत्पादन, सिंचिंत क्षेत्रों के लिए उपयुक्त

जे के एच 3 (1997)

-

जल्दी पकने वाली किस्म 130-135 दिन



उन्नत किस्में

जेके.-4 (2002)

-

असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त 18-20 क्विं/हे

जेके.-5, (2003)

-

अच्छी गुणवत्ता, मजबूत रेशा 18-20 क्विं/हे

जवाहर ताप्ती (2002)

-

रस चूसक कीटो के लिए प्रतिरोधी 15-18 क्विं/हे



बुवाई का समय एवं विधि

यदि पर्याप्त सिंचाई सुविधा उपलब्ध हैं तो कपास की फसल को मई माह में ही लगाया जा सकता हैं सिंचाई की पर्याप्त उपलब्धता न होने पर मानसून की उपयुक्त वर्षा होते ही कपास की फसल लगावें। कपास की फसल को मिट्टी अच्छी भूरभूरी तैयार कर लगाना चाहिए। सामान्यतः उन्नत जातियों का 2.5 से 3.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन/डिलिन्टेड) तथा संकर एवं बीटी जातियों का 1.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन) प्रति हेक्टेयर की बुवाई के लिए उपयुक्त होता हैं। उन्नत जातियों में चैफुली 45-60*45-60 सेमी. पर लगायी जाती हैं (भारी भूमि में 60*60, मध्य भूमि में 60*45, एवं हल्की भूमि में ) संकर एवं बीटी जातियों में कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी क्रमशः 90 से 120 सेमी. एवं 60 से 90सेमी रखी जाती हैं |

सघन खेती

कपास की सघन खेती में कतार से कतार 45 सेमी एवं पौधे से पौधे 15 सेमी पर लगाये जाते है, इस प्रकार एक हेक्टेयर में 1,48,000 पौधे लगते है। बीज दर 6 से 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखी जाती है। इससे 25 से 50 प्रतिशत की उपज में वृद्धि होती है। इस हेतु उपयुक्त किस्में निम्न है:- एनएच 651 (2003), सुरज (2002), पीकेवी 081 (1989), एलआरके 51 (1992) , एनएचएच 48 बीटी (2013) जवाहर ताप्ती, जेके 4 , जेके 5आदि।



खाद एवं उर्वरक :

प्रजाति

नत्रजन (किलोग्राम/हे. )

फास्फोरस/हे.

पोटाश/हे.

गंधक (किग्रा/हे.)

उन्नत

80-120

40-60

20-30

25

संकर

150

75

40

25

15% बुआई के समय एक चैथाई 30 दिन, 60 दिन, 90 दिन पर बाकी 120 दिन पर आधा बुआई के समय एवं बाकी 60 दिन पर

आधा बुआई के समय एवं बाकी 60 दिन पर

आधा बुआई के समय एवं बाकी 60 दिन पर

बुआई के समय



  • उपलब्ध होने पर अच्छी तरह से पकी हुई गोबर की खाद/कम्पोस्ट 7 से 10 टन/हे. (20 से 25 गाड़ी) अवश्य देना चाहिए ।
  • बुआई के समय एक हेक्टेयर के लिए लगने वाले बीज को 500 ग्राम एजोस्पाइरिलम एवं 500 ग्राम पी.एस.बी. से भी उपचारित कर सकते है जिससे 20 किग्रा नत्रजन एवं 10 किग्रा स्फुर की बचत होगी।
  • बोनी के बाद उर्वरक को कालम पद्धति से देना चाहिए। इस पद्धति से पौधे के घेरे/परिधि पर 15 सेमी गहरे गड्ढे सब्बल बनाकर उनमें प्रति पौधे को दिया जाने वाला उर्वरक डालते है व मिट्टी से बंद कर देते है।



बी.टी. कपास में रिफ्यूजिया का महत्व

भारत सरकार की अनुवांषिक अभियांत्रिकी अनुमोदन समिति (जी. ई.ए.सी.) की अनुशंसा के अनुसार कुल बीटी क्षेत्र का 20 प्रतिशत अथवा 5 कतारें (जो भी अधिक हो) मुख्य फसल के चारों उसी किस्म का नान बीटी वाला बीज लगाना (रिफ्यूजिया) लगाना अत्यंत आवष्यक हैं प्रत्येक बीटी किस्म के साथ उसका नान बीटी (120 ग्राम बीज) या अरहर का बीज उसी पैकेट के साथ आता हैं। बीटी किस्म के पौधों में बेसिलस थुरेनजेसिस नामक जीवाणु का जीन समाहित रहता जो कि एक विषैला प्रोटीन उत्पन्न करता हैं इस कारण इनमें डेन्डू छेदक कीटों से बचाव की क्षमता विकसित होती हैं। रिफ्यूजिया कतारे लगाने पर डेन्डू छेदक कीटों का प्रकोप उन तक ही सीमित रहता हैं और यहाँ उनका नियंत्रण आसान होता हैं। यदि रिफ्यूजिया नहीं लगाते तो डेन्डू छेदक कीटों में प्रतिरोधकता विकसित हो सकती हैं ऐसी स्थिति में बीटी किस्मों की सार्थकता नहीं रह जावेगी ।



निंदाई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण

पहली निंदाई-गुड़ाई अंकुरण के 15 से 20 दिन के अंदर कर कोल्पा या डोरा चलाकर करना चाहिए। खरपतवारनाशकों में पायरेटोब्रेक सोडियम (750 ग्रा/हे) या फ्लूक्लोरिन /पेन्डामेथेलिन 1 किग्रा. सक्रिय तत्व को बुवाई पूर्व उपयोग किया जा सकता है।



सिचांई

एकान्तर (कतार छोड़ ) पद्धति अपना कर सिंचाई जल की बचत करे। बाद वाली सिंचाईयाँ हल्की करें,अधिक सिंचाई से पौधो के आसपास आर्द्रता बढ़ती है व मौसम गरम रहा तो कीट एवं रोगों के प्रभाव की संभावना बढ़तीहै।

सिंचाई की क्रांतिक अवस्थाएँ

  • सिम्पोडिया, शाखाएँ निकलने की अवस्था एवं 45-50 दिन फूल पुड़ी बनने की अवस्था।
  • फूल एवं फल बनने की अवस्था 75-85 दिन
  • अधिकतम घेटों की अवस्था 95-105 दिन
  • घेरे वृद्धि एवं खुलने की अवस्था 115-125दिन

टपक सिंचाई से जल की बचत करें :-

टपक सिंचाई एक महत्वपूर्ण सिंचाई साधन है यह बिजली, मेहनत और लगभग 70 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत करता है। टपक सिंचाई को तीन दिन में एक बार चलाया जाना चाहिए । टपक सिंचाई की सहायता से पौधों को घुलनशील खाद एवं कीटनाशकों की आपूर्ति की जा सकती है। प्रत्येक पौधे को उचित ढंग से पर्याप्त जल व उर्वरक उपलब्ध होने के कारण उपज में वृद्धि होती है।

कीट

पहचान

हानि

नियंत्रणके उपाय

हरा मच्छर
















पंचभुजाकार हरे पीले रंग के अगले जोड़ी पंखे पर एक काला धब्बा पाया जाता है

शिशु -व्यस्क पत्तियों के निचले भाग से रस चूसते है। पत्तिया क्रमशः पीली पड़कर सूखने लगती है।

1.पूरे खेत में प्रति एकड़ 10 पीले प्रपंच लगाये। 2.नीम तेल 5मिली.टिनोपाल/सेन्डोविट 1मिली.प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।3.रासायनिक कीटनाशी थायोमिथाक्ज़्म 25डब्लुजी - 100ग्रामसक्रियतत्व/हेएसिटामेप्रिड 20एस.पी. - 20ग्रामसक्रियतत्व/हे.इमिडाक्लोप्रिड 17.8एस.एल - 200मिली.सक्रियतत्व/हे ट्रायजोफास 40ईसी 400मिली सक्रियतत्व/हे.एक बार उपयोगमें लाई गई दवा का पुनःछिड़कावनहींकरें।

सफेदमक्खी



हल्के पीले रंग की जिसका शरीर सफेद मोमीय पाउडर से ढंका रहता है

पत्तियोसे रस चूसतीहै एवं मीठा चिपचिपा पदार्थ पौधे की सतह पर छोड़ते है। से वायरस का संचरणभी करती है।

माहो

अत्यंतछोटेमटमैलेहरे रंग का कोमलकिट है।

पत्तियोकी निचली सतह से खुरचकरएवं घेटों पर समूह में रस चूसकर मीठा चिपचिपा पदार्थ उत्सर्जित करती है।

तेला

अत्यंत छोटे काले रंग के कीट

पत्तियो की कनचली समह से खुरचकर हरे पदार्थ का रस पान करते है।

मिलीगब

मादा पंखी विहीन,शरीर सफेद पाउडर से ढंका। पर के शरीर पर कालेरंग के पंख।

तने,शाखाओं,पर्णवृतों,फूल पूड़ी एवं घेटोंपर समूह में रस चूसकर मीठा,चिपचिपा पदार्थ उत्सर्जित करती है।

कपास के रोग के लक्षण एवं प्रबंधन

कपास के रोग

रोग के लक्षण

प्रबंधन

कपास का कोणीय धब्बा एवं जीवाणु झुलसा रोग

रोग के लक्षण पौधे के वायुवीय भागों पर छोटे गोल जलसक्ति बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं। रोग के लक्षण घेटों पर भी दिखाई देते हैं। घेटों एवं सहपत्रों पर भी भूरे काले चित्ते दिखाई देते हैं। ये घेटियाँ समय से पहले खुल जाती है रोग ग्रस्त घेटों का रेशा खराब हो जाता है इसका बीज भी सिकुड़ जाता है

  • बोने से पूर्व बीजों को बावेस्टीन कवक नाशी दवा की 1ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार करे
  • कोणीय धब्बा रोग के नियंत्रण के लिए बीज को बोनेसे पहले स्टेप्टोसाइक्लिन (1ग्राम दवा प्रति लीटर पानीमें) बीजोपचार करे ।
  • खेत में कोणीय धब्बारोग के लक्षण दिखाई देते ही स्टेप्टोसाइक्लिन का 100पी.पी.एम (1ग्राम दवा प्रति 10ली.पानी)घोल का छिड़काव 15दिन के अंतरपर दो बार करें।
  • कवक जनितरोगों की रोकथाम हेतु एन्टाकालया मेनकोजेबया काँपरऑक्सीक्लोराइड की 2.5ग्रामदवा को प्रति लीटर पानी के साथ घोल बनाकर फसल पर 2से 3बाद 10दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।
  • जल निकास का उचित प्रबंध करें।

मायरोथीसियम पत्ती धब्बा रोग

इस रोग में पत्तियोंपर हल्के भूरे से गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। कुछ समय बाद ये धब्बे आपस में मिलकर अनियमित रूप से पत्तियों का अधिकांश भाग ढँक लेतेहैं,धब्बों के बीच का भाग टूटकर नीचे गिर जाता है। इस रोग से फसल की उपज में लगभग 20-25प्रतिशततक कमी आंकीगई है ।

अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग

इस रोग में पत्तियों पर हल्के भूरे रंग के संकेंद्रित धब्बे बनते हैं व अन्त में पत्तियाँ सूखकर झड़ने लगती है। वातावरण में नमी की अधिकता होने पर ही यह रोग दिखाई देता है एवं उग्ररूप से फैलता है,

पौध अंगमारीरोग

पौध अंगमारी रोग में बीजांकुरों के बीज पत्रों पर लाल भूरेरंग के सिकुड़े हुए धब्बे दिखाई देते हैं एवं स्तम्भ मूल संधि क्षेत्र लाल भूरे रंग का हो जाता है। रोगग्रस्त पौधे की मूसला जड़ोंको छोड़कर मूल तन्तु सड़ जाते हैं। खेत में उचित नमी रहते हुए भी पौधों का मुरझा कर सूखनाइस बीकारी का मुख्य लक्षण है।



न्यू विल्ट (नया उकठा)


न्यू विल्ट से ग्रसित पौध

पौधे में लक्षण उकठा (विल्ट) रोग की तरह दिखाई देते हैं पौधे के सूखने की गति तेज होती है। अचानक पूरा पौधा मुरझाकर सूख जाता है । एक ही स्थान पर दो पौधों में से एक पौधों का सूखना एवं दूसरा स्वस्थ होना इस रोग का मुख्य लक्षण है। इस रोग का प्रमुख कारण वातावरणीय तापमान में अचानक परिवर्तन, मृदा में नमी का असन्तुलन तथा पोशक तत्वों की असंतुलित मात्रा के कारण होता है। नया उकठा रोग के नियंत्रण के लिए यूरिया का 1.5 प्रतिशत घोल (100 लीटर पानी में 1500 ग्राम यूरिया) 1.5 से 2 लीटर घोल प्रति पौधा के हिसाब से पौधों की जड़ के पास रोग दिखने पर एवं 15 दिन के बाद डालें।



न्यू विल्ट से ग्रसित पौधा :

  • कपास की जैविक खेती करने से कपास में रसायनो का प्रभाव नहीं रहता है।
  • मिट्टी व पर्यावरण शुद्ध रहेगा,
  • एक्सपोर्ट क्वालिटी का होने के कारण बाजार भाव अच्छा (लगभग डेढ गुना )मिलेगा।
  • जैविक खेती करने के लिए निम्न किस्मों का उपयोग कर सकते है।
  • एनएच 651 (2003), सुरज (2002), पीकेवी 081 (1989), एलआरके 51 (1992) ,
  • ी.सी.एच. 32 , एच-8 , जी कॉट 10 , जेके.-4, जेके.-5 जवाहर ताप्ती,
  • बीजोपचार हेतु एजोस्पीरिलियम/ एजेटोबेक्टर , पी.एस.बी., ट्राइकोडर्मा माईकोराइजा उपयोग करे।
  • ोशक तत्व प्रबन्धन हेतु जैविक खादों / हरी खाद का प्रयोग करे।
  • डोरा कुल्पा चलाकर खरपतवार नियंत्राण करे।
  • कीट नियंत्रण हेतु नीम की खली को भूमि में उपयोग करे, नीम का तेल का छिड़काव करें , चने की इल्ली नियंत्रण हेतु एचएनपीवी एवं बीटी लिक्विड फामूलेशन का प्रयोग करे।



उपज

देशी/उन्नत जातियों की चुनाई प्रायः नवम्बर से जनवरी-फरवरी तक, संकर जातियों की अक्टूबर-नवम्बर से दिसम्बर-जनवरी तक तथा बी.टी. किस्मों की चुनाई अक्टूबर से दिसम्बर तक की जाती है। कहीं-कहीं बी.टी. किस्मों की चुनाई जनवरी-फरवरी तक भी होती है। देशी/उन्नत किस्मों से 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, संकर किस्मों से 13-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथी बी.टी. किस्मों से 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक औसत उपज प्राप्त होती है।

कपास की चुनाई के समय रखन वाली सावधानियाँ

  • कपास की चुनाई प्रायः ओस सूखन के बाद ही करनी चाहिए।
  • अविकसित, अधखिले या गीले घेटों की चुनाई नहीं करनी चाहिए ।
  • ुनाई करते समय कपास के साथ सूखी पत्तियाँ, डण्ठल, मिट्टी इत्यादि नहीं आना चाहिए।
  • चुनाई पश्चात् कपास को धूप में सुखा लेना चाहिए क्योंकि अधिक नमी से कपास में रूई तथा बीज दोनों की गुणवत्ता में कमी आती है । कपास को सूखाकर ही भंडारित करें क्योंकि नमी होने पर कपास पीला पड़ जायेगा व फफूंद भी लग सकती हैं।



कपास

  • सामान्यतः उन्नत जातियों का 2.5 से 3.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन/डिलिन्टेड) तथा संकर एवं बीटी जातियों का 1.0 किग्रा. बीज (रेशाविहीन) प्रति हेक्टेयर की बुवाई के लिए उपयुक्त होता हैं।
  • उन्नत जातियों में चैफुली 45-60X45-60 सेमी. पर लगायी जाती हैं (भारी भूमि में 60*60, मध्य भूमि में 60*45, एवं हल्की भूमि में ) संकर एवं बीटी जातियों में कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी क्रमशः 90 से 120 सेमी. एवं 60 से 90 सेमी रखी जाती हैं
  • उर्वरकों को बुआई के समय देने पर व जड़ क्षेत्र में होने पर ही सबसे अधिक उपयोग-दक्षता प्राप्त होती है। अतः आधार खाद को बुआई के समय ही व बुआई की गहराई पर प्रदाय करना चाहिए।
  • जिले की मिटटी में ज़िंक एवं सल्फर की कमी पाई गई है। अतः आखरी बखरनी के बाद जिंक सल्फेट 25 किग्रा./हेक्टेयर डालना चाहिए। या मृदा परीक्षण के परिणामों के आधार पर सुक्ष्म तत्वों का उपयोग करना चाहिए।
  • सिंचाई हेतु टपक सिंचाई पद्धति अपनाकर कपास में अच्छा परिणाम मिलता है।
  • न्यू विल्ट रोग की रोकथाम हेतु उचित जल निकासी के साथ यूरिया का 1.5 प्रतिशत घोल , 1 लीटर द्ध का पौधों के पास भूमि में डालना
  • कपास की जैविक खेती करने से कपास में रसायनो का प्रभाव नहीं रहता है। मिट्टी व पर्यावरण शुद्ध रहेगा, एक्सपोर्ट क्वालिटी का होने के कारण बाजार भाव अच्छा (लगभग डेढ गुना )मिलेगा। जैविक खेती करने के लिए निम्न किस्मों का उपयोग कर सकते है।एनएच 651 (2003), सुरज (2002), पीकेवी 081 (1989), एलआरके 51 (1992) , डी.सी.एच. 32 , एच-8 , जी कॉट 10 , जेके.-4, जेके.-5 जवाहर ताप्ती,
  • सघन खेती: कपास की सघन खेती में कतार से कतार 45 सेमी एवं पौधे से पौधे 15 सेमी पर लगाये जाते है, बीज दर 6 से 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखी जाती है। इससे 25 से 50 प्रतिशत की उपज में वृद्धि होती है। इस हेतु उपयुक्त किस्में निम्न है:- एनएच 651 (2003), सुरज (2002), पीकेवी 081 (1989), एलआरके 51 (1992) , एनएचएच 48 बीटी (2013) जवाहर ताप्ती, जेके 4 , जेके 5 आदि।